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सिद्धि तप के तपस्वी, तपस्विनियों एवं सकल संघ का निकला वरघोडा


सिरोही 30 अगस्त (हरीश दवे) ।

– जैन वीसी से भव्याती भव्य सिद्धि तप के तपस्वियों एवं समस्त अन्य तपस्विनियों एवं सकल संघ का वरघोडा साधु भगवंत एवं साध्वी जी की निश्रा में शहर के विभिन्न मार्गाे से निकलते हुए पुनः जैन वीसी में आया उसके पश्चात सकल संघ के स्वामी वात्सल्य लाभार्थी श्रीमती स्वर्गीय इन्दूबाला सुरेश कुमार जी सिंघवी परिवार की और से रखा गया जिसमें सकल सघं के साथ शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी भाग लिया। पूर्व विधायक संयम लोढा ने भी शिरकत की। साधु भगवंतो से आशीर्वाद लिया एवं सकल संघ से मिच्छामी दुक्कडम भी किया। लाभार्थी परिवार स्वर्गीय इंदु बाला सुरेश सिंघवी परिवार ने सकल संघ को हाथ जोड़कर विनती की और स्वामी वात्सल्य का लाभ लेने के लिए कहा, कल प्रातः साधु भगवंत एवं साध्वीजी की निश्रा में सकल संघ के साथ चैत्य परिपाटी होगी जिसमें पांच मंदिरों के दर्शन करते हुए शांति नगर पहुंचेंगे, वहां लाभार्थी परिवार के घर पर महाराज साहब के बड़ी तपस्या का पारन होगा एवं सकल संघ की नवकारसी सुबह का नाश्ता होगा जिसका लाभ दर्शनाबेन निखिल शाह परिवार ने लिया है। महाराज सा ने अपने प्रवचनों में कहा कि आईना और आलोचक कहा जाता है कि आईना और आलोचक में बस इतना ही फर्क है आईना तन के दाग़ दिखाता है और आलोचक मन के, हम सब अपने चेहरे को दिन में कई बार दर्पण में देखते हैं। अगर कहीं चेहरा गंदा हो, धूल या पसीना जमा हो गया हो, तो हम तुरंत उसे साफ करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि हमें यह अच्छा नहीं लगता कि कोई हमें गंदे या अस्त-व्यस्त रूप में देखे। परंतु क्या कभी हमने सोचा है कि जिस तरह आईना हमारे चेहरे के दाग़ दिखाता है, उसी तरह हमारे मन में भी बहुत-सी खामियाँ छुपी होती हैं ? ईर्ष्या, क्रोध, लालच, झूठ, दिखावा और अहंकार ये सब मन के दाग़ हैं। इन्हें हम चाहकर भी दर्पण में नहीं देख सकते। इन्हें दिखाने का काम आलोचक करता है। आलोचक हमें आईना दिखाता है, पर वह आईना चेहरे का नहीं, बल्कि मन का होता है। अक्सर लोग आलोचना सुनकर बुरा मान जाते हैं। लेकिन अगर सोचें तो आलोचक की बात हमारे लिए सुधार का अवसर होती है। जैसे आईना हमें सच बता देता है कि चेहरे पर दाग़ है, वैसे ही आलोचक यह बता देता है कि हमारे आचरण, स्वभाव या विचारों में कहाँ कमी है। अगर हम इसे समझ लें तो आलोचक को दुश्मन नहीं, बल्कि एक सच्चा मार्गदर्शक मानेंगे।
असल में, तन का आईना हमें सँवारता है और मन का आलोचक हमें निखारता है। दोनों ही हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि आईना तुरंत दिख जाता है और हम मान भी लेते हैं, लेकिन आलोचक की बात स्वीकार करने के लिए हमें साहस और विनम्रता की आवश्यकता होती है। इसलिए, जो आलोचक हमें सच कहने का साहस रखते हैं, उनका धन्यवाद करना चाहिए। क्योंकि वही हमें सही मायनों में आगे बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं। यह जानकारी जय विक्रम हरण एवं लाला भाई ने दी।

संपादक भावेश आर्य

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