सिरोही नरेश महाराव सुरतान देवड़ा ने हिंदवी स्वराज की रक्षा में महाराणा प्रताप को दिया साथ,

(महाराणा प्रताप की 486 वी जयंती पर इतिहासकार डॉ उदय सिंह डिगार का विशेष आलेख)
” मायडी ऐहडा पूत जण, जेहडा राण प्रताप।
सूतो अकबर दिल्ली धूजे, जाण सिराने सांप ।।
सिरोही(हरीश दवे)।

हिंदूआ सूरज प्रातः स्मरणीय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की 486 श्री जयंती के अवसर पर इतिहासकार डॉक्टर उदयसिंह डिंगार ने बताया कि महाराणा प्रताप के स्वतंत्रता संघर्ष के समय संकट काल में सिरोही नरेश महाराव सुरतान देवड़ा ने मुगल सत्ता का प्रतिशोध कर राष्ट्र धर्म निभाते हुए महाराणा प्रताप का सहयोग कर इतिहास में बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत किया था। महाराणा प्रताप का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया विक्रम संवत 1597 को हुआ था , जिसके अनुसार आज उनकी 486 वी जयंती है। इनके पिता का नाम महाराणा उदयसिंह था एवं माता जयवंता कुंवर पाली के शासक अक्षयराज(अखेराज )सोनीगरा की राज कन्या थी। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का राजतिलक 28 फरवरी 1572 ई को गोगुंदा में संघर्षमय वातावरण में हुआ था । महाराणा प्रताप तत्कालीन समाज के साथ व्यापक जन सहभागिता एवं सामाजिक समानता के पक्षधर थे, जिसके बल पर उन्होंने स्वतंत्रता एवं राष्ट्रवाद के साथ ही सनातन संस्कृति की अखंड ज्योति को प्रज्वलित रखा। 18 जून 1576 ई के हल्दीघाटी के महायुद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप ने कुछ समय अपने ससुराल ईडर में व्यतीत किये एवं तत्पश्चात वन गमन के दौरान सिरोही के स्वतंत्रताप्रिय शक्तिशाली शासक महाराव सुरतान देवड़ा ने महाराणा प्रताप की ऐतिहासिक सहायता कर आबू की दुर्गम पहाड़ियों, सुंधा की पहाड़ियों समेत सिरोही क्षेत्र में विभिन्न स्थलों सुरक्षित रखकर सम्मान के साथ अपूर्व सहायता एवं अद्भुत साथ दिया। महाराव सुरतान देवड़ा द्वारा इस स्वतंत्रता संघर्ष में अद्भुत एवं अपूर्व सहयोग देकर मुगल सत्ता को चुनौती देने का कार्य किया गया था, जिससे तत्कालीन देशकाल एवं परिस्थितियों के कारण 17 अक्टूबर 1583 ई को दत्तानी का युद्ध हुआ ,जिसमें शाही सेना की करारी हार हुई थी। महाराणा प्रताप एवं महाराव सुरतान देवड़ा के स्वतंत्रता संघर्ष एवं मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं करने को लेकर यह उक्ति प्रसिद्ध रही है : “अवर नृप पतशाह अगे , होई भर्त जोड़े हाथ ।
नाथ उदयपुर नी नमियो, नमीयो नी अर्बुद्ध नाथ ।।
महाराणा प्रताप ने आजीवन स्वतंत्रता संघर्ष हेतु जंगलों की खाक छानी एवं राजपाट छोड़कर जंगल जंगल घूमते रहे। यह पंक्तियां प्रचलित रही है” वन वन घूमा था राणा ,बन आजादी का परवाना ” वे स्वतंत्रता सर्वोपरि, राष्ट्र प्रथम , हिंदुत्व रक्षक एवम् सामाजिक एकता की भावना के प्रेरणा स्रोत बने। सन 1582 ई के लगभग दिवेर के युद्ध में महाराणा ने शाही सेना को करारी शिकस्त दी थी । सन 1597 इसी में चावंड में महाराणा प्रताप की वीरगति हुई । महाराणा ने जीवन पर्यंत सुख एवं प्रलोभन को छोड़कर सनातन संस्कृति, राष्ट्र प्रथम, स्वतंत्रता संघर्ष के लिए जंगल जंगल घूमते रहे किंतु मुगल सत्ता की अधीनता स्वीकार नहीं की । यही कारण है कि आज महाराणा प्रताप की जयंती राजस्थान अथवा भारत में ही नहीं ,अपितु विदेशों में भी मनाई जाती है । राष्ट्र प्रथम की भावना, हिंदुत्व एवं सनातन संस्कृति के सजग प्रहरी, संप्रभुता, शूरवीरता, स्वतंत्रता प्रियता, सतत संघर्षशीलता, अदम्य साहस, अडिग आत्मविश्वास के साथ ही समाज के सभी वर्गों के प्रति समानता एवम् सम्मान पूर्वक व्यवहार एवं उच्च आदर्शों का पालन करना आदि महाराणा के अनुकरणीय गुणों एवं विशेषताओं के कारण यह प्रचलित है कि” जब तक सूरज चांद रहेगा, महाराणा प्रताप का नाम रहेगा । किसी कवि ने कहा है
“अश्व ले गयो अणदाग ,पाग ले गयो अणनमी ,,,,,,,,,,,जो दृढ़ राखे धर्म को ,ता ही राखे करतार।” महाराणा प्रताप की जन्म जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन।


संपादक भावेश आर्य